બુધવાર, 14 માર્ચ, 2012

'भुत' नामक पान की दूकान - फोटो स्टोरी


आज से ३५ साल पहेले एक इंसान ने अपना धंधा शुरू किया था - पान की दूकान का, गुजरात के पाटन शहर में. कृष्ण चतुर्थदसी के दिन रात को बारह बजे. जिसे काल रात्री और गुजराती में काली चौदस कहेते है. शारीर पर काले  कपडे धारण करके. दूकान का नाम रखा - 'भुत ताम्बुल गृह' और सिम्बोल - इंसानी खोपड़ी और हड्डीया. दुनिया को ये दिखाने के लिए की परमात्मा की इस सृष्टि में सब कुछ परम पवित्र है, हर क्षण शुभ है यदि आप का कार्य शुभ कामना  युक्त है. अपने विचारों में अड्गता हो तो सफलता मिलती ही है, कोई कुछ नहीं बिगाड़ शकता. ये प्रसिद्धि पाने के लिए बिलकुल भी नहीं है क्योकि ये एक ही कमाई का जरिया है, यही स्त्रोत है आमदनी का. काल मुहूर्त में शुरू किया हुआ व्यवसाय ३५ सालो से जमा हुआ है, बिना किसी दिक्कत के. दिक्कते तो हरेक के जीवन में आती है इन्हें भी आई होगी पर 'भुत' नाम अभी भी लगा हुआ है. और कुछ 'ख़ास' लोग यहाँ खड़े भी नहीं रहेते क्योकि कोई भी नशीली चीज यहाँ नहीं मिलती. बीडी, सिगरेट, तम्बाकू और तम्बाकू से बनी हुई कोई भी चीज - गुटखा, मावा ऐसा कुछ भी यहाँ बेचा नहीं जाता. तो मिलाता क्या है और गुजारा कैसे होता है? थोड़ी ही दुरी पर एक फिल्म थियेटर था अब तो वो भी बंद हो गया है! यहाँ मिलता है सादा मीठा पान, मसाला, ठंडाई, सोडा, चोकलेट, बिस्कुट, १८ वर्ष की कम आयु के लिए सब कुछ और कुछ नयापन. बचपन में पहेली बार ठंडा पान यही से खाया था और रोमांचित हुआ था, अब तो ठंडा पान आम बात हो गयी है. गुजरा तो बहेतारिन ढंग से होता ही है पर अपने बेटे को दन्त चिकित्सक (डेंटिस्ट)  भी बनाया.  

करारा तमाचा है उन लोगो के मुह पर जो मजबूरी की आड़ में लोगो की सेहत से खिलवाड़ करते है, मिलावट करके  अपनी प्रोडक्ट और दुकानों का नाम भगवान के नामो से रखते है. उन लोगो को भी जो डरा डरा कर भोले लोगो की जेबे खाली करते है. परम पवित्र व्यवसायों में भी गन्दगी का उफान जोरो पर है. 

दूकान पर ये लिखा है : पान खाने की रित - शर्दी, जुकाम और मुह को रोगों को मिटाने के लिए एक घंटे तक पान को चबाये, थूंके नहीं और रस को अन्दर उतारे. ऊपर पानी न पिए. कब्ज के लिए 'ख़ास' पान खा कर ऊपर पानी पिए. पाच साल के बच्चो को पण को उबालकर उसका रस पिलाए. ताजा कलम में ये लिखा है - पाटन में देखने लायक जगहों के साथ लोग इस दूकान की मुलाक़ात भी लेते है. 

રવિવાર, 4 માર્ચ, 2012

कुछ मेरे प्रिय गुजराती लेखक और पुस्तकों के बारेमे...







पसंदीदा लेखको और पुस्तकों के बारेमे लिखना कभी सम्पूर्ण नहीं हो शकता ये अपूर्ण ही रहेगा ताकि आगे अपनी भूलो को सुधारकर और भी बेहतरीन ढंग से अधिक  लिखा जाएगा...

 श्री चंद्रकांत बक्षी -
चाहते हुए भी कभी नहीं मिल शका - देखा है , सुना है, पढ़ा है और उनके मृत शरीर को नजदीक से देखा है आधुनिक तरीके से राख होते हुए. गुजरात राज्य के पालनपुर  में ८ अक्तूबर १९३२ के दिन   जन्मे  लेखक का बचपन और शुरूआती शिक्षा कोलकाता में हुई, लिखने की शुरुआत भी यही से की और कर्मभूमि बनी मुंबई नगरी और अंतिम सांस ली दिनांक २५ मार्च २००६  गुजरात के अमदावाद में. गुजराती साहित्यकार, इतिहासकार, प्रोफ़ेसर और प्रिन्सिपाल और मुंबई के सेरिफ भी रह चुके है. गुजरात और गुजराती भाषा का प्रेम उनके लेखन में जलकता है. एसा कोई विषय नहीं जिसमे बक्षी बाबु की कलम न चली हो. उन्होंने लिखा भी है ' यही कटे हुए अंगूठे से गुजराती साहित्य को जहोजलाल किया है'. बचपन में इनके साथ दुर्घटना घटित हुई थी और दाइने अंगूठे में गंभीर  चोट आई थी. उपन्यास, कहानिया, साहित्य, संस्कृति, समाजशास्त्र, राजनीति, करंट अफेर्स, खेल, खाना-पीना...आत्मकथा... कुल मिलाकार इनकी किताबो की संख्या १७८ से भी ज्यादा है. इनकी कलम में श्याही नहीं बारूद भरा था जिससे आलोचकों, साहित्य के ठेकेदारों, चाटुकारों के चिथड़े उड़ जाते थे. न वाह वाही की अपेक्षा थी और न आलोचना की फिकर. बेफाम, बेखौफ जिंदगी जिए और उसका स्वीकार भी किया. मांसाहार और मद्यपान को कभी छुपाया नहीं और अपने अकाट्य तर्कों से उसका समर्थन भी किया.

बक्षीजी के बारेमे क्या लिखू और क्या न लिखू? कौनसे पुस्तक और विचारो का उल्लेख यहाँ करू और किसका न करू? उपन्यास - 'आकार', 'पेरालिसिस', 'हथेली पर बादाबाकी', 'बाकी रात', 'जातक कथा', 'लिली नशोमा पानखर' (हिन्दीमे अनुवादित - पतजर हरे पन्ने में - वैसे तो बहोत सी रचनाए हिंदी और अन्य भाषओमे अनुवादित हुई है) 'वंश', 'शुर खाब', 'ज़िन्दानी', 'रीफ मरीना' सभी उपन्यासों में नायिकाओ का वर्ण काला है और महेनत कस है और नायक दुनिया की मार खाया हुआ और चहेरे पे वीरता का चिह्न लिए हुए संघर्षरत, खुद को तलासता-तरसता और अस्तित्व के लिए जुजता. लेखक की खुद की उम्र बढ़ने के साथ ही अपने नायक की उम्र भी बढ़ती है... 'अयंवृत, 'अनावृत' - प्रयोगशील. 'मीरा', 'मशाल', 'एक सांजनी मुलाकात' - कहानी संग्रह, 'गुजरे थे हम जहासे ( पाकिस्तान यात्रा वर्णन), 'रशिया रशिया'. 'बक्षीनामा' - आत्मकथा ( उनके शब्दों में ये गुजरातनामा भी है ) 'तवारीख', 'विश्वनी प्राचीन संस्कृतियो' और एक विवादस्पद कहानी - 'कुत्ती' जिसपर तत्कालीन गुजरात सरकारने क्रिमिनल केस ठोक दिया था. कृति पर अश्लीलता का आरोप था पर ये तेजोद्वेश था साहित्य के ठेकेदारों का. बक्षी बाबू ने कहा भी था के इस केस की वजह से मै खुवार हो गया था मुंबई से सूरत के धक्के खा कर. लम्बे अरसे तक चले इस केस को बाद में गुजरात सरकार ने वापस ले लिया था - बहोत से लोगो को जटका लगा था लेखक की विद्वता और तर्कों से... एक वो सरकार थी और एक ये भी सरकार है जिसने एक लेखक की मृत्यु पे शोक व्यक्त करके श्रद्धांजलि अर्पण की थी, श्री चन्द्रकान्त बक्षी के अवसान के समाचार मिलते ही मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने तुरंत फोन करके उनके रिश्तेदारों से कहा की जब तक मै अंतिम दर्शन करने न पहोछु स्मशान यात्रा न निकलना और वाडे के मुताबिक मुख्य मंत्री ठीक समय पर पहोच भी गए थे...
(श्री चंद्रकांत बक्षी के बारे में विस्तृत लेखन इसी महीने में)

 श्री कनैयालाल मुनशी - जन्म गुजरात के भरूच में दिन ३० दिसंबर १८८७ को हुआ था. धुरंधर व्यक्तित्व और बहुमुखी प्रतिभा. गुजरात के इतिहास का संशोधन और फिक्सन का मिश्रण करके अद्भुत कृतिओकी रचना की है. 'पाटन नी प्रभुता', 'गुजरात नो नाथ', 'राजाधिराज', 'जय सोमनाथ'. पौराणिक, सामाजिक, ऐतिहासिक उपन्यास हिंदी भाषामे भी अनुवादित हुए है. मुनशी साहब की आत्मकथा तीन भागो में विभक्त है - 'अडधे रस्ते', 'सीधा चढ़ान' और 'स्वप्नसिद्धि नी शोधमा'. एक और एतिहासिक उपन्यास जो मुझे बहोत पसंद है 'पृथ्वी  वल्लभ' जिसकी महात्मा गांधीने जमकर आलोचना की थी. जिसमे एक वाक्य को पकड़कर महत्माने अपनी अरसिकता और साहित्य के प्रति अरुचि प्रगट की थी. मुनासी जी ने इस उपन्यास में एक अ-रूप स्त्री का ऐसा अद्भुत वर्णन करके पात्र को निखारा है की पढ़ने वाला सुन्दरता को भूल जाए!  


इनके विपुल साहित्य को देखकर हैरानी होती है की इतने व्यस्त रहेते हुए इतना सब कुछ कैसे लिख शके? स्वतंत्रता सेनानी, राजकीय व्यक्तित्व, भारतीय विद्या भवन के संस्थापक, कुलपति, १९४८ में सरदार पटेल ने ही उन्हें हैदराबाद के एजंट के तौर पे नियुक्ति की थी. 


बचपन में ही विवाह हो जाने की वजह से और अपनी पत्नी अतिलक्ष्मी में जीवन साथी न मिलने से ज्यादातर वक्त पढाई लिखाई में ही बिताया करते थे. वे शुष्क  और ज्यादातर बीमार रहती थी. मुन्शी जी के साथ गृहस्थी ज्यादा आगे न बढ़ सकी और कम आयु में मृत्यु हो गयी. अपने शुषुप्त भावो को कलम के जरिये व्यक्त करते गए और गुजराती साहित्य में जुड़ गयी बेहतरीन कृतिया. 


कनैयालाल मुन्शी के एतिहासिक उपन्यास पाठको को जकड लेते है, पढ़ते पढ़ते पहोच जाते है लेखक की सृष्टि में - जहा पायल की रुम्जुम और तलवार की खनक सुनाई देती है, प्रेम का संगीत और राजधर्म की धजाये लहेरती है. गुजरात के समुद्र की खारास और रन की धुल, जंगल और वन्राजी एक साथ आते है. मुंजाल महेता की कूटनीति दिमाग को  जकजोर देती है और रजा भीम देव, सिद्धराज जयसिंह की वीरता खून में गरमी ला देते है. पाटन, सोमनाथ और गुजरात के वैभव का जो वर्णन किया है मानो लेखक ने उस युग को जिया हो...
 
श्री जवेरचंद मेघाणी - ( २८ अगस्त १८९६ से ९ मार्च १९४७) 
अगर आपने जवेरचंद मेघाणी को नहीं पढ़ा तो गुजरात की लोक संस्कृति के विषय में कुछ भी नहीं जानते. बहोत ही कम आयु में जीवनदीप बुज गया पर उनकी साहित्य की मशाल अभी भी जल रही है और युगों युगों तक जलती रहेगी. स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्रीय शायर श्री जवेरचंद मेघाणीने  गुजरात की लोक संस्कृति को गध्य और पद्य बद्द किया है. ज्यादातर उपन्यास सामजिक है जो अब इतिहास बन  गए है. 'सत्यनी शोधमा', 'अपराधी', 'वेविशाल', 'निरंजन' जैसे उपन्यास में तत्कालीन समाज की जान्खी होती है. उनके काव्यो और गीतों में वीर रश टपकता है - हे राज मने लाग्यो कसुम्बिनो रंग... और 'शिवाजीनु  हालरडू' शिवाजी ने निन्दरू न आवे माता जीजा बाई जुलावे... आज भी रोमहर्षक है. 

श्री जवेरचंद मेघाणी को उनके पौत्र श्री पिनाकी मेघाणी ने जो श्रद्धा सुमन अर्पित किये है - आप भी करे
 जवेरचंद मेघाणी 


कुछ  और गुजराती लेखको और पुस्तकों के विषय में फिर कभी. न मैंने यहाँ समीक्षा की है और न आलोचना, मैंने कुछ लिखा है अपने प्रिय लेखको के लेखन और कृतित्व के विषय में, जिस तरह से एक छोटा बच्चा आडी - तिरछी रेखाए बनाकर अपने शुषुप्त भावो को व्यक्त करता है उसी तरह क्योकि हिंदी लेखन में मेरी कुछ मर्यादाये है. कोशिश कर रहा हु शुद्ध हिंदी लिखने की और ये जरुर होगा. गुजराती लेखन में जो शब्दों का वैभव आता है उस तरह से फिलहाल तो हिंदी में नहीं लिख शकता - आखिरकार एक गुजराती हु मै.